समूह की प्रकृति , समूह के कार्य - nature of group, group functions

समूह की प्रकृति , समूह के कार्य - nature of group, group functions


इन परिभाषा ओं का एक समन्वित विश्लेषण करने पर हम समूह की निम्न प्रकृति तक पहुंचते हैं। 1. समूह एक सामाजिक इकाई को कहा जाता है इसमें दो या दो से अधिक व्यक्ति एक दूसरे के साथ सामाजिक अंतर क्रिया करते हैं। यही कारण है कि समूह व्यक्तियों के संग्रह या कुल योग में भिन्न होता है। क्योंकि इनमें सामाजिक इकाईपन की विशेषता नहीं होती है।


2. समूह के सदस्यों के बीच जो अंतर क्रिया होती है वह आमने-सामने की अंतर क्रिया हो या शारीरिक अंतर क्रिया ही हो कोई जरूरी नहीं है वे शाब्दिक या लिखित अंतर क्रिया भी हो सकती है जैसा कि फील्डमेन ने कहा है" यह आवश्यक नहीं है कि अंतर क्रिया शारीरिक और आमने सामने की ही हो शाब्दिक या लिखित अंतर क्रिया भी हो सकती है।"


समूह के कार्य :


समूह अपने सदस्यों के लिए अनेकों कार्य करता है। विभिन्न तरह के समूह अपने सदस्यों के लिए भिन्न भिन्न तरह के कार्य करते हैं। इन समूहों के कुछ सामान्य कार्यों का वर्णन निम्नलिखित है -


1- आवश्यकताओं का वीभेदीय संतुष्टि सदस्यों की आवश्यकताओं की संतुष्टि करना समूह का प्रमुख कार्य है किसी भी समूह में दो प्रकार के सदस्य होते हैं- प्रभावी एवं महत्वपूर्ण सदस्य तथा अप्रभावी एवं साधारण सदस्य । प्रभावी सदस्य उच्च कोटि के होते हैं सभी महत्वपूर्ण निर्णय इन्हीं लोगों के द्वारा किया जाता है।


2- अधिपत्त तथा तदीयत्व आवश्यकताओं की संतुष्टि समूह के सदस्यों की आधिपत्य आवश्यकता एवं तदीयत्व आवश्यकता की संतुष्टि होती है। आधिपत्य आवश्यकताओं से तात्पर्य वैसे आवश्यकता से होता है जिसमें व्यक्ति वह समूह का एक महत्वपूर्ण सदस्य होने की भावना तीव्र होती है। जब व्यक्ति किसी समूह का सदस्य होता है तो उसकी आर्थिक आवश्यकताओं की ही सिर्फ संतुष्टि नहीं होती बल्कि तदीयत्व आवश्यकता की भी संतुष्टि होती है।

क्रैच तथा क्रैचफील्ड (1949) के अनुसार, "सभी समूह अपने कुछ सदस्यों की आधिपत्य आवश्यकताओं की पूर्ति करता है और अधिकतर सदस्यों की तदीयत्व आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।" समूह तदीयत्व कि संतुष्टि कर सदस्यों में हम लोगों की भावना को प्रोत्साहन देता है।


3- नई आवश्यकताओं का निर्माण समूह सिर्फ आवश्यकताओं की पूर्ति ही नहीं करता है बल्कि नई-नई आवश्यकताओं का सृजन भी करता है। जैसा कि हम जानते हैं व्यक्ति की आवश्यकता है ना तो सीमित होती हैं और न स्थिर जब व्यक्ति अपनी खास खास आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किसी समूह का सदस्य होता है तो इसकी इन आवश्यकताओं की पूर्ति तो हो ही जाती है साथ ही साथ कुछ नई आवश्यकताएं भी पैदा होती हैं इन नई आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए वह समूह का अधिक क्रियाशील सदस्य बनने की कोशिश करता है इसका लाभ यह होता है कि समूह का अस्तित्व तो बना ही रहता है साथ ही साथ उसके कार्यक्षेत्र भी विकसित हो जाता है।


4- व्यक्ति का समाजीकरण समूह द्वारा व्यक्ति का समाजीकरण भी होता है। विभिन्न सामाजिक समूहों जैसे परिवार, खेल का समूह कॉलेज, धार्मिक समूह, राजनीतिक समूह आदि का योगदान व्यक्ति के समाजीकरण में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से होता है।

जब कोई व्यक्ति किसी अच्छे सामाजिक समूह जैसे धार्मिक समूह स्कूल, कॉलेज का सदस्य बनता है वह अपने सामाजिक व्यवहार को उनके मानदंडों के अनुसार परिवर्तित करता है तथा उससे कुछ सीखता भी है उसी तरह यदि व्यक्ति किसी बुरे सामाजिक समूह जैसे चोर डकैत तथा बदमाशों के समूह का सदस्य किसी कारण से बन जाता है तो वह असमाजीक व्यवहार को अधिक सीखता है फलतः समाजीकरण के स्थान पर असमाजीकरण हो जाता है।


5- सांस्कृतिक निरंतरता को बनाए रखना समूह सामाजिक निरंतरता को भी बनाए रखने में मदद करता है। जैसा कि हम जानते हैं प्रत्येक समूह की अपनी कुछ विशेषताएं मूल्य परंपराएं प्रथाएं आदि होती है जिन पर संस्कृति का स्पष्ट मुहर लगा होता है। एक समूह कितने समय तक इन मूल्यों परंपराओं प्रथम एवं आदर्शों को बनाए रखता है उसने समय तक सांस्कृतिक निरंतरता भी बनी रहती है।


6- अनेकों समूह की सदस्यता- समूह अपने कुछ सदस्यों को खासकर के साधारण सदस्य को अप्रत्यक्ष रूप से दूसरे समूह समूह का सदस्य बनने के लिए कुछ कारणों से प्रेरित करता है। ऐसे कारण में तीन कारण प्रमुख है-


(i) समूह के सदस्य की आवश्यकताएं धीरे-धीरे विशिष्ट होती चली जाती हैं। 


(ii) सदस्यों की बदलती हुई नई आवश्यकताओं के अनुसार समूह अपने आप में परिवर्तन नहीं ला पाता है। 


(iii) समूह अपने सदस्यों की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करने में असमर्थ होता है।