ग्रामीण-नगरीय सातत्य एवं ग्राम्य नगरीकरण - Rural-Urban Continuum and Rurbanization
ग्रामीण-नगरीय सातत्य एवं ग्राम्य नगरीकरण - Rural-Urban Continuum and Rurbanization
ग्राम एवं नगर मानव के मध्य होने वाली अंतः क्रिया के दो स्वरूप हैं। इन दो स्वरूपों में भेद बहुत ही सूक्ष्म है। अतः यह कहना कठिन है कि कहां पर ग्राम की सीमा समाप्त होती हैं और कहां से नगर प्रारंभ होता है। नगर एवं ग्राम का भेद सुविधा की दृष्टि से ही किया गया है। वास्तविक जीवन में हमें ऐसे क्षेत्र भी देखने को मिलेंगे जहां ग्रामीण अवस्था के साथ साथ नगरीय अवस्थाएं भी पाई जाती हैं। सभ्यता के विकास के साथ-साथ इस प्रकार की मध्य स्थिति वाले एवं दोनों प्रकार की स्थितियों के मिश्रण वाले क्षेत्रों का विकास हो रहा है। ऐसे मिलन क्षेत्रों को हम ग्राम्य-नगरीकरण या ग्रामीण नगरीय सातत्य कहते हैं। ऐसे क्षेत्रों में ना तो पूर्ण ग्रामीण अवस्था पाई जाती हैं और नहीं पूर्ण नगरीय अवस्था वरन दोनों की मिलीजुली अवस्था पाई जाती है।
ग्राम-नगर (Rurban) शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम गाल्फिन द्वारा किया गया था। इस अवधारणा के विकास में प्रोफेसर विर्थ का विशेष योगदान है। विर्थ ग्रामीण एवं नगरीय जीवन के दो भिन्न प्रकार की जीवन पद्धतियां मानते हैं। इसी प्रकार रेडफिल्ड, सोरोकिन, जिम्मेरमन, पीकर तथा बेबर ने भी ग्रामीण नगरीय भेदों का श्रेणीकरण किया है।
ग्रामीण-नगरीय सातत्य एक आधुनिक प्रक्रिया है जो किसी भी ग्रामीण या नगरीय में देखी जा सकती हैं। यह एक ऐसी घटना है जो अंशों में परिलक्षित होती है। वर्तमान समय में किसी भी घटना को न तो पूर्ण रूप से ग्रामीण कह सकते हैं और ना ही पूर्ण रूप से नगरीय। समस्त ग्रामीण घटनाएं एक प्रक्रिया के रूप में कालांतर में नगरीय रूप धारण करती हैं। ग्रामीण-नगरीय सातत्य को मानने वाले विद्वानों का मत है कि ग्राम एवं नगर में अंतर मुख्यतः भौगोलिक, जनसंख्यात्मक और आर्थिक दृष्टि से इतने स्पष्ट नहीं है जितने सामाजिक दृष्टि से सामाजिक क्रिया की दृष्टि से गांव एवं नगर में भिन्नता पाई जाती है किंतु ग्रामवासियों एवं नगर वासियों की परस्पर अंतःक्रिया के परिणामस्वरूप ही गांव में नगरीकरण एवं नगरों में ग्राम्यीकरणकी प्रक्रिया विकसित होती है। इन दोनों प्रक्रियाओं को मिलाकर एक समन्त्रित रूप पनपा उसे ही गालपिन ग्राम्य-नगरीकरण कहते हैं।
इस संदर्भ में बर्गल लिखते हैं "नगर की सीमा के बाहर एक ऐसा विशाल क्षेत्र है जहां ग्रामीण एवं नगरीय परिवार इतनी मिश्रित हो जाते हैं नगर या ग्रामीण क्षेत्र कहना नितांत असंभव हो जाता है।
ऐसे मिश्रित प्रदेश ग्राम में नगर कहलाते हैं अतः ग्राम्य-नगर क्षेत्र कहलाते हैं। अतः ग्राम्य-नगर क्षेत्र केवल ग्रामवासियों एवं नगरवासियों के स्थानीय साहचर्य को ही नहीं प्रकट करता वरन यह इससे भी कहीं अधिक है। बड़े-बड़े नगरों के आसपास गांव ही होते हैं जिनमें नगर एवं गाँव की विशेषताएं एक साथ देखी जा सकती हैं। मुंबई और कोलकत्ता में तो व्यक्ति स्पष्ट रूप से यह कहता है कि हम उपनगर (Sub urb) में रहते हैं। इस नगर तुल्य गांव में नगर की विशेषताओं को देखा जा सकता है। किसी महानगर के बाहरी छोरे पर जो कस्बे बस जाते हैं उन्हें भी उपनगर ही कहते हैं जैसे मुंबई के पास अंधेरी, गोरे एवं दिल्ली के निकट साहिबाबाद आदि। जब गांव एवं नगर एक दूसरे के निकट आते हैं तो दोनों समाज की विशेषताएं की विशेषताएं एक दूसरे के समाज में प्रविष्ट होती है। यही कारण है कि हम किसी भी नगर में ग्रामीण समाज की अनेक विशेषताएं देख सकते हैं। कालांतर में नगर के निकटवर्ती गांव का जीवन नगरीकृत हो जाता है।
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