रोजगार का प्रतिष्ठित सिद्धांत - Classical Theory of Employment

रोजगार का प्रतिष्ठित सिद्धांत - Classical Theory of Employment


प्राचीन अथवा प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों का यह विचार था की साधारणतया देश की अर्थव्यवस्था में सदैव ही पूर्ण रोजगार होता है । यदि कभी विशेष कारणों से देश की अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी उत्पन्न भी हो जाती हैतो आर्थिक शक्ति यां इस तरह के कार्य करेंगी कि कुछ ही समय में फिर से अर्थव्यवस्था में पूर्ण रोजगार की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। यह विचार प्राचीन अर्थशास्त्री एडम स्मिथ रिकार्डो .सी. बी. जे. वाकर मिलमार्शल तथा पीगू के the। इन अर्थशास्त्रियों की यह धरना थी कि सामान्य अति उत्पादन असंभव होने के कारण सामान्य बेरोजगारी असंभव है । प्राचीन अर्थशास्त्रियों की यह मान्यता थी कि निर्बाध पूंजीवादी व्यवस्था स्वयं समायोजित होने वाली होती है।

ये अर्थशास्त्री यह मन कर चलते थे कि पूर्ण प्रतियोगिता भ उद्देश्य तथा स्वतंत्र मूल्य तंत्रला के कारण अर्थव्यवस्था में पूर्ण रोजगार की स्थिति निरंतर बनी रहती है । प्राचीन अर्थशास्त्रियों ने कोई विशिष्ट रोजगार का सिद्धांत प्रतिपादित नहीं किया बल्कि कुछ पूर्व धारणाओं का विकास तथा विस्तार किया जिससे एक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में उत्पादन एवं रोजगार के क्रिया कलापों को समझा जा सके। रोजगार का प्राचीन सिद्धांत पूर्ण रोजगार तथा मूल्य एवं मजदूरी की लोचशीलता पर आधारित है ।


प्राचीन अर्थशास्त्री ये मानते थे की स्वतंत्र पूंजीवादी अर्थव्यवस्था मूल्य एवं मजदूरी की र्ण रोजगार की स्थिति को बनाये रख सकतपू लोचशीलता है।

इन अर्थशास्त्रियों के अनुसार सर्कार अथवा एकाधिकार हस्तक्षेप के कारण ही बेरोजगारी उत्पन्न होती है। प्रसिद्ध प्राचीन अर्थशास्त्री जे.सी.बी. प्रतिष्ठित रोजगार सिद्धांत के विकास में बहुत योगदान दिया। अतः इस सिद्धांत का अध्ययन करने से पहले इस नियम को जानना आवश्यक है ।


जिन्होंने बाजारों के नियमों का प्रतिपादन किया the जीन बपिस्ते एक प्रसिद्ध फ्रांसीसी अर्थशास्त्री । इनके अनुसार पूर्ती सदैव अपनी मांग स्वयं उत्पन्न करती है। इनकी यह मान्यता थी कि उत्पादन की प्रत्येक क्रिया उत्पादित वस्तुओं के मूल्य के बराबर साधनों के पारिश्रमिक के रूप में आय को जन्म देती है तथा अतः समस्त पूर्ती का विक्रय आय को वस्तुओं को खरीदने में व्यय कर दिया जाता है is हो जाता है।