हिन्दी नाटक और रंगमंच पर लोकनाट्यों का प्रभाव - Influence of folk dramas on Hindi drama and theater
हिन्दी नाटक और रंगमंच पर लोकनाट्यों का प्रभाव - Influence of folk dramas on Hindi drama and theater
विद्वानों के मतानुसार हिन्दी नाटक और रंगमंच भरपूर साधन-सम्पन्न होते हुए भी अपने दर्शक जुटा पाने में असक्षम व निस्सहाय सा प्रतीत होने लगा क्योंकि इन नाटकों में सामाजिक लोक-तत्त्वों की उपेक्षा व इनसे दुराव रखने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। यह प्रवृत्ति ही हिन्दी रंगमंच हेतु घातक सिद्ध होने लगी। श्रीबी. एम. शाह ने इस करते हुए समस्या पर विचार करते हुए कहा कि "जब तक इसमें (लोक नाट्य के गुण) संगीत व हास्य को समाविष्ट नहीं - किया जाता और जब तक इसे नाट्य समीक्षकों का पूर्ण समर्थन नहीं मिलता तब तक यह क्षतिग्रस्त रहेगा।" इसी प्रकार श्री राजाराम शास्त्री ने भी इस बात का अनुमोदन करते हुए कहा कि करोड़ों रुपए खर्च करने के बावजूद भी नागरिक मंच फल-फूल नहीं रहा है।
'सोखा की बीमारी से ग्रस्त बालक की नागरिक मंच से तुलना उन्होंने कहा कि एक प्रदर्शन के लिए इतना खर्च कर दिया जाता है कि दूसरे प्रदर्शन के लिए बजट ही नहीं बचता और यही आडम्बर रूपी रोग हिन्दी रंगमंच को लगा हुआ है जबकि लोकमंच एक स्वस्थ बच्चे की भाँति है। जिसके तन पर पूरे वस्त्र न होते हुए भी, आडम्बरहीन व साधनहीन होने के बावजूद उसे गोद में खेलाने को मन करता है । सारांशतः हिन्दी नाटक व रंगमंच अपनी कृत्रिमता व आडम्बर के कारण लड़खड़ाने वाली स्थिति में पहुँच गया है। ऐसी स्थिति में पहुँचने पर नागरिक मंच ने इन सुझावों व दबावों को अगीकार किया ।
परिणामतः पारम्परिक रंगमंच के रूप और नई दृष्टि से नाट्यकरण की संभावनाओं कोउजागर करते हुए हिन्दी रंगमंच देश के परम्परागत लोक नाट्य तत्त्वों को अपनाने लगा है।
की कल्पना श्री कमल वशिष्ठ के अनुसार "आज का भारतीय रंगमंच विदेशी अन्धानुकरण की प्रवृत्ति को त्यागकर भारतीय लोकमंच की ओर उन्मुख हो रहा है। उसमें बाह्य स्थूल यथार्थ के चित्रण की अपेक्षा मनुष्य को सजग करने का प्रयास किया जा रहा है। लोक रंगमंच की रूढ़ियों में मुखौटे विदूषक, संगीत एवं नृत्य का प्रयोग रंगमंच में अधिक हो रहा है। हयवदन ( यक्षगान शैली), घासीराम कोतवाल (दशावतार शैली),
बकरी (नौटंकी शैली), अबूहसन ( जात्रा शैली) आदि नाटक लोक रंगमंच की शैलियों में लिखे गए हैं। नाटक के कथ्य को संगीत में बाँधना एक नया काम है। अस्तु, दर्शकों को जोड़ रखने में संगीतात्मकता अधिक सहायक होती है।"
इस प्रकार हिन्दी रंगमंच पर लोकनाट्यों ने अपनी शैलियों, अपने नाट्य तत्त्वों, कथावस्तु व लोक नाट्य- परम्पराओं के रूप में प्रभाव डाला है। हिन्दी रंगमंच में प्रशिक्षणार्थियों को लोक परम्परानुसार नृत्य करना, तलवारबाजी करना सिखाया जाने लगा है। कहावतों के आस-पास कथानकों का लयात्मक ताना-बाना बुना जाने लगा है। 'आगरा बाजार' या 'चरणदास चोर' जैसे लोक मंच प्रधान नाटकों को नागर बनाकर प्रस्तुत किया जाने लगा है।
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