लौकिक संस्कृत की विशेषताएँ - Characteristics of Cosmic Sanskrit

वैदिक संस्कृत का ही विकसित रूप लौकिक संस्कृत है। वैदिक संस्कृत में जो विविधता और अनेकरूपता पायी जाती थी, वह संस्कृत में न्यून हो गई। पाणिनी के व्याकरण का प्रभाव बहुत बढ़ गया। फलस्वरूप पाणिनी व्याकरण से असिद्ध रूपों का प्रचलन कम हो गया। अपवाद नियमों की संख्या कम हो गई। लौकिक संस्कृत की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-


(1) शब्द रूपों और धातु रूपों में वैकल्पिक रूपों की न्यूनता हो गयी।


(ii) सन्धि नियमों की अनिवार्यता हो गयी।


(iii) लोट् लकार का अभाव हो गया।


(iv) भाषा में स्वरों का प्रयोग समाप्त हो गया।


(v) 'कृत' प्रत्ययों आदि में अनेक प्रत्ययों के स्थान पर एक प्रत्यय होने लगे। तुमर्थक 15 प्रत्ययों के स्थान पर केवल 'तुम' प्रत्यय है।


(vi) शब्द कोष में पर्याप्त अन्तर हो गया। प्राचीन ईम्, सीम् जैसे निपात लुप्त हो गए। वेदों में अत्यन्त प्रचलित अवस्यु विचर्षणि, वीति, ऋक्वन, उक्थ्य जैसे शब्द समाप्त हो गए। इसी प्रकार के अन्य शब्द हैं- दर्शत (दर्शनीय), दृशीक (सुन्दर) मूर (मूद) अमूर (विद्वान) अक्तु (रावि), अमीवा (रोग), रपस (चोट) ऋदुदर (कृपालु) ।


(vii) वैदिक शब्दों के अर्थों में भी अन्तर हो गया। जैसे -


पत्


वैदिक संस्कृत उड़ना


संस्कृत- गिरना


सह वैदिक संस्कृत जीतना


संस्कृत- सहना


न वैदिक संस्कृत नहीं, तुस


असुर वैदिक संस्कृत शक्तिशाली


संस्कृत नहीं


संस्कृत- दैत्य


अराति वैदिक संस्कृत कृपण


वध


संस्कृत शत्रु


वैदिक संस्कृत- घातक शस्त्र संस्कृत - हत्या


क्षिति वैदिक संस्कृत- गृह


संस्कृत- पृथ्वी


(viii) स्वरों में लृ का प्रयोग समाप्त प्राय हो गया । व्यंजनों में ळ और कह नहीं रहे । जिह्वामूलीय और


उपध्मानीय का प्रयोग समाप्त हो गया।


(ix) संगीतात्मक स्वर के स्थान पर बलात्मक स्वरों का प्रायेोग होने लगा।


(x) उपसर्गों का स्वतन्त्र प्रयोग नहीं रहा।